जब मन स्थिरता की ओर आ जायेगा तो सुमिरण में लग जायेगा, वो सुमिरण जो न्यारा है, उस सुमिरण की ओर सदगुरु कबीर ने यहां पर ईशारा किया है!
जिसमें ना तो किसी माला की जरुरत है ओर ना किसी शब्द की जरुरत है!
वह सुमिरण हर जीव में अखण्ड रुप से प्रवाहित हो रहा है!
वहाँ ना किसी जाति की जरुरत है ना किसी धर्म की, ना मजहब की, ना सम्प्रदाय की जरुरत है!
इसी सुमिरण के बारे में सदगुरु कबीर ने यहाँ पर इस तरह से कहा है!
सुमिरण की सुध युं करो, ज्यों गागर पणिहार!
हाले डोले सुरत में, ओर कहे कबीर विचार!
सुमिरण सुरती साध के, ओर मुख से कछु ना बोल!
तेरे बाहर के पट देई के, तेरे अंतर के पट खोल!!
एसा सुमिरण किजिये, सहज रहे लव लाय!
बिन जिव्ह्या बिन तालवे, ओर अंतर सुरत लगाय!!
वो सुमिरण एक न्यारा रे संतो...
वो सुमिरण एक न्यारा है...
जिस सुमिरण से पाप कटे है...
होवे भव जल पारा है...
मालण कर मुख जिव्ह्या ना हाले
आप ही होत उच्चारा है
सब ही के घट रचना रे लागी
क्यों नहीं समझे गंवारा रे संतो... -----(1)
अखंड तार टुटे नहीं कबहु
सोहंग शब्द उच्चारा है...
ग्यान आंख मोरे सतगुरु खोले...
जानेगा जानण्हारा है...-----(2)
पुरब पश्चिम उत्तर दक्शिण...
चारो दिशाओं में पचहारा है...
कहे कबीर सुनो भाई साधो...
एसा शब्द लेओ टकसारा रे संतो... -----(3)
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